व्रत के संदर्भ में
व्रत – पर्व – महोत्सव तथा जयन्तियों के संदर्भ में पंचांगकारों, ज्योतिषियों , धर्मशास्त्रियों , पुराणज्ञों और लोकव्यवहार में सक्षम विद्वानों द्वारा निर्णय अनिवार्य होता है । धर्मशास्त्र अनुमोदित व्रत – पर्व अ़़दृश्य फल देने में सक्षम होते है।
- अक्षांश और रेखाश के बदल जाने से अनेक बार तिथि और नक्षत्र के मान में अन्तर आ जाता है । ऐसे में अपवाद स्वरूप कुछ व्रत – पर्व दो दिन हो जाते है। सूर्योदय काल में तिथि और नक्षत्र के मान अल्प होने पर ऐसी घटना यदा-कदा सामने आती है।
- एक दिन एक ही तिथि में कई एक बार अनेक व्रत पड़ते है। इन व्रतों को संकल्प और उदे्श्य के माध्यम से व्रतकर्ता एक ही दिन में सम्पन्न करता है। अत: इससे कोई समस्या नहीं आती है। उदाहरण के लिए चैत्रशुक्लप्रतिपदा के दिन एक ह व्यक्ति एक ही दिन में अलग- अलग संकल्प के द्वारा इष्टि , वासन्तिक नवरात्रिपूजन, ध्वजारोहण, गौरीयात्रा , धर्मघटदान तथा कल्पादि त्राद्ध कर सकता है। यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्रत के लिए अलग संकल्प लिया जाय और तत्सम्बन्धी देवता का पूजन अलग से किया जाय। अत: एक ही दिन में पड़ने वाले अनेक व्रत एक दूसरे के विरोधी नहीं होते। अलग- अलग व्रतों के माध्यम से अलग-अलग कामनाओं की पूर्ति होती है।
- त्रिमुहूर्त व्यापिन तिथि का धर्मशास्त्रीय महत्व होता है। मुहूर्तो घटिकाद्वयम् के अनुसार दो घटी का एक मुहूर्त होता है। अत: त्रिमुहूर्त का अर्थ है छ: घटी। एक घटी- २४ मिनट। यदि सूर्योदयकाल के पश्चात् कोई तिथि छ: घटी दो घण्टा चौबस मिनट की होती है।
व्रतादि से सम्बन्धित सामान्य ज्ञान
भारतीय मास- चैत्र वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्र्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, और फाल्गुन ये बारह मास होते है।
पक्ष- एक मास में दो पक्ष होते हैं- शुक्लपक्ष एवं कृष्णपक्ष। शुक्लपूर्णिमा की संख्या १४ तथा कृष्णपक्षीय अमावास्या की संख्या ३० होती है।
संवत्सर- कुल ६० संवत्सर परिगणित है। इनका चक्रभ्रमण होता है। इन संवत्सरों का नाम क्रमश: इस प्रकार से है- १ प्रभव २ विभव ३ शुक्ल ४ प्रमोद ५ प्रजापति ६ अंगिरा ७ श्रीमुख ८ भाव ९ युवा १० धाता ११ ईश्वर १२ बहुधान्य १३ प्रमाथी १४ विक्रम १५ वृषभ १६ चित्रभानु १७ सुभानु १८ तारण १९ पार्थिव २० व्यय २१ सर्वजित् २२ सर्वधारी २३ विरोधी २४ विकृति २५ खर २६ नन्दन २७ विजय २८ जय १९ मन्मथ ३० दुर्मुख ३१ हेमलम्ब ३२ विलम्ब ३३ विकारी ३४ शर्वरी २५ प्लव ३६ शुभकृत् ३७ शोभन ३८ क्रोधी ३९ विश्वासु ४० पराभव ४१ प्लवंग ४२ कीलक ४३ सौम्य ४४ साधारण ४५ विरोधकृत् ४६ परिधावी ४७ प्रमादी ४८ आनन्द ४९ राक्षस ५० नल ५१ पिंगल ५२ काल ५३ सिद्धार्थ ५४ रौद्र ५५ दुर्मति ५६ दुंदुभी ४७ रूधिरोद्गारी ५८ रक्ताक्ष्ा ५९ क्रोधन ६० क्षय।
आरम्भ के २० संवत्सर ब्रम्हा, मध्य के २० विष्णु तथा अन्त के २० संवत्सर शिव के होते है। इन संवत्सरों के अधिपति क्रमश: ब्रम्हा विष्णु तथा महेश होते है।
चन्द्रवत्सर – व्रत – पर्व संकल्प लेते समय चान्द्रवर्ष का ही स्मरण किया जाता है- चन्द्रवत्सर एव स्मर्तव्यों नान्य:। चान्द्रतिथि से ही जन्मदिन मनाना चाहिए।
अयन- अयन दो प्रकार का होता है- उतरायण एवं दक्षिणयन। एक अयन छ: मास का होता है। प्रायश: १४ जनवरी से उतरायण तथा १७ जुलाई से छक्षिणायन का आरम्भ होता है।
संक्रान्ति- सूर्य का एक राशि भोग एक सूर्यमास होता है। राशि प्रवेश के दिन को उस राशि की संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है। ये बारह सूर्यसंक्रान्तियॉं निम्नवत् हैं- मेषसंक्रान्ति, वृषसंक्रान्ति,मिथुनसंक्रान्ति, कर्कसंक्रान्ति, सिंहसंक्रान्ति, कन्यासंक्रान्तियॉं, तुलासंक्रान्ति, वृश्चिकसंक्रान्ति, धनुक्रान्ति, मकरसंक्रान्ति, कुम्भसंक्रान्ति, मीनसंक्रान्ति । सक्रान्ति के दिन पिण्डरहित श्राद्ध किया जाता है- संक्रान्तिषु पिण्डरहितं श्राद्धं कार्यम् ।
ऋतु- ऋतुये छ: होती है। एक ऋतु में सुर्य क दो राशियॉ होत हैं। ये है-
मकर, कुम्भ = शिशिर मीन, मेष = वसन्त वृष, मिथुन = ग्रीष्म
कर्क, सिंह = वर्षा कन्या, तुला = शरद् वृश्चिक, धनु = हेमन्त
अधिकमास एवं क्षयमास – जिस मास में संक्रान्ति न हो उसे अधिकमास और जिस मास में दो संक्रान्तियॉं हो उसे क्षयमास कहते है। अधिकमास प्रायश: ३२ माह के बाद आता है। क्षयमास १४१ वर्षो पर आता है। जिस वर्ष क्षयमास होता है उसवर्ष दो अधिकमास होते है एक क्षयमास से पहले और दूसरा क्षयमास के बाद।
अधिकमास, शुक्रास्त एवं गुर्वस्त में वर्ज्य – श्रावण, गृहारम्भ – गृहप्रवेश, मुण्डन, यज्ञोपवीत, विवाह, तीर्थयात्रा, देवप्रतिष्ठा, कूप- तालाब – वापी का निर्माण, उद्याननिर्माण,नववस्त्रालंकारधारण, महादान, यज्ञकर्म, अपूर्वतीर्थदर्शन, संन्यास, वृषोत्सर्ग, राज्याभिषेक, दिव्यकर्म, गोदान, अष्टकाश्राद्ध, अन्नप्राशन, व्रतारम्भ ( तीज, करवाचौथ आदि ), व्रतोद्वापन मलसास एवं गुरू- शुक्र के अस्त होने पन नही करना चाहिए।
युग्मतिथियॉं- जब व्रत दो दिन पड़ता हो या दोनों दिन नहीं पड़ता हो, तब युग्मतिथियों के माध्यम से पूर्वविद्धा तिथि ( व्रत ) ग्राह्रा होती है।
१.दितीय- तृतीया का वेधग्राह्रा है।ये युग्मतिथियॉं है। २. चतुर्थी – पंचमी का वेधग्राह्रा हो, ये युग्मतिथियॉ है। ३ षष्ठी – सप्तमी का वेधग्राह्रा है। ये युग्मतिथियॉं है। ४. अष्टमी – नवमी का वेधग्राह्रा है। ये युग्मतिथियॉं है। ५. एकादशी –द्वदशी का वेधग्राह्रा है। ये युग्मतिथियॉं है। चतुर्दशी – पूर्णिमा का वेधग्राह्रा है। ये युग्मतिथियाँ है। ६. आमावास्या – प्रतिपदा का वेधग्राह्रा है। ये युग्मतिथियॉं है।
अपवाद युग्म तिथियॉं- १ भगवती गौरी और भगवान् श्रीगणश के व्रत में तृतीया और चतुर्थी तिथि का युग्म बनता है – चतुर्थीगणनाथस्य मातृविद्धा प्रशस्यते । रम्भातृतीया हमेशा दितीया विद्धा होती है। २ श्रीकृष्णजन्माष्टमीव्रत एवं दूर्वाष्टमीव्रत सप्तमी अष्टमी विद्धा ग्राह्रा है जन्माष्टमी में मध्यरात्रि में अष्टमी की अनिवार्यता स्वीकृत है। ज्येष्ठा देवी निमित अष्टमी व्रत सप्तमी एवं नवमी दोनो से विद्धा ग्राहा् हैा कालभैरवाष्टमी मध्यरात्रिक होने से सप्तमी विद्धा भी ग्राहा् होती है।
यां तिथिं समनुप्राप्य उदयं याति भास्कर:।
सा तिथि: सकला ज्ञेया स्नानदानजपादिषु।।
यह वचन स्नान, दान, जप तथा नवमीहोम के लिए पूर्णत: ग्राहा् है।
व्रतपरिभाषा – देवर्षि, ब्रहा्र्षि, मुनि, सिद्ध एवं परमाचार्यो द्वारा आदिष्ट प्रसिद्धिप्राप्त विषय के संकल्पविशेष को व्रत कहते है। यह कामनापूर्ति कारक होता है। यह पूजन, उपवास और पारणा से संपुष्ट तीन अंगो वाला होता है। व्रतो के माध्यम से जीवन में अलभ्य का लाभ एवं असाध्य की प्राप्ति होती है-
अभियुक्तप्रसिद्धिविषयों य: संकल्पविशेष: स एवं व्रतम् ।
तत्पूजनोपवासपारणारूपम् । उपवास एव व्रतम् ।।
एकभक्त – रात्रि में उपवास करके दूसरे दिन मध्याह्र बीतने के पश्चात् ( सूर्यास्त से ती घण्टा पूर्व) पारण किया जाता है- मध्याहा्न्त्यदले त्रिभागदिवसे स्यादेकभक्तम् । इस व्रत में दोपहर में पूजन किया जाता है। एकभक्त व्रत में चौबीस घण्टे में एक बार दोपहर बाद भोजन लिया जाता है । ब्रहा्चारी को एकभक्तव्रत करना चाहिए। एकभक्त व्रत में हमेशा मध्याह्र व्यापिनी तिथि में पूजन किया जाता है- मध्याह्रव्यापिनी ग्राह्रा् एकभक्ते सदा तिथि:। पद्यपुराण, निर्णयसिन्धु:।
नक्तव्रत – रात्रि में पारण करना नक्तव्रत कहलाता है। नक्तव्रत में तिथि प्रदोषव्यापिन ग्रहा् होती है- ‘ प्रदोषव्यापिन ग्राहा् तिथिर्नक्तव्रते सदा।‘
अयाचितव्रत- बिना मांगे जो कुछ मिल जाए उसे खा रहना, यदि नहीं मिले तो बिना खाये रहना अयाचितव्रत कहलाता है। दूसरो से प्राप्त व्रत भी अयाचित कहलाता है। इसमें ‘ उपवास ’ की प्रधानता होती है, पूजन की नहीं।
प्रदोष – सूर्यास्त के बाद तीन घटी (७२ मिनट ) का प्रदोषकाल होता है- प्रदोषों घटिकात्रयम् । स्कन्दपुराण के अनुसार त्रिमुमूर्त का प्रदोष होता है- त्रिमुहूर्त: प्रदोष: स्याद् रवावस्तग्डतें सति।
प्रदोषकाल- सूर्यास्त के तीन घटी ( ७२ मिनट ) बाद तक प्रदोषकाल होता है – प्रदोषो घटिकात्रयम्। इसमें पूजन करके सूर्यास्त के तीन घटी बाद पारण किया जाता है। दिन भर उपवास रहकर रात्रि में प्रदोष के बाद करना नक्त व्रत है- निशायां भोजनं चैवं तज्ज्ञेयं नक्तमेव तु ।। अत्रिसंहिता. १३१ ।।
सूर्यास्त से एक मुहूर्त ( ४८ मिनट ) पूर्व से लेकर नक्षत्र दर्शन काल तक नक्त कहलाता है-
मुहूर्तोनं दिनं नक्तं प्रवदन्ति मनीषिण:।
नक्षत्रदर्शनान् नक्तमहं मन्ये गणाधिप ।। भविष्यपुराणम् ।।
व्रत में अनिवार्य- एक साथ दो रात्रि से अधिक उपवास नहीं करन चाहिए- दिरात्राधिकोपासों न करणीय:। व्रत के दिन दातुन और ब्रश से मुख नहीं धोना चाहिए। पता या बारह कुल्ला से दन्तधावन करना चाहिए। प्रत्येक व्रत के प्रमुखदेवता होते है। अत: व्रत में सकंल्पपूर्वक प्रधानदेवता का मंत्र – जप – ध्यान – कथा- पूजन – कीर्तन – श्रवण आदि करनाअत: चाहिए। क्ष्ामा – सत्य – दया – दान- शौच- इन्द्रियनिग्रह – देवपूजा – हवन – संतोष – अचौर्य ये दस तत्व व्रत के लिए अनिवार्य होते हैं –
क्षमासत्यंदयादानंशौचमिन्द्रियनिग्रह:।
देवपूजा च हवनं सन्तोष: स्तेयवर्जनम् ।।
धमसिन्धु प्रथम परिच्छेद, व्रतपरिभाषा।
व्रतोपवासनाशकत्व–
१ बार – बार अनावश्यक रूप से जल पीना । ( व्रतकाल में दो बार से अधिक जल नहीं पीना चाहिए। प्राणसंकट आने पर अधिक बार भी जल ले सकते है। )
२ एक बार भी ताम्बूल चबाना । ( सौभाग्यवती स्त्रियॉं करवाचौथ, तीजव्रत, गौरीव्रत आदि में उबटन – तेल लगा सकती है। साथ ही पान का चर्वण कर सकती है।)
३ व्रत के दिन, दिन में सोना।
४ व्रत के दिन अष्टविध मैथुन करना । ( स्मरण, वार्ता, केलि, दर्शन, गुप्तसंवाद, संकल्प, निश्चय और क्रियापूर्ति ये आठ प्रकार का मैथुन होता है।)
असकृज्जलपानाच्च सकृताम्बूलचर्वणात् ।
उपवास: प्रणश्येत दिवास्वापाच्च मैथुनात् ।।
स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुहा्भाषणम् ।
संकल्पो ड ध्यवसायश्च क्रियानिर्वृतिरेव च ।।
५. चमड़े में रखा जल पीना।
६. गोदुग्ध के अतिरिक्त दुग्ध लेना ।
७. मसूर, जम्बीरी नींबू, चूना ग्रहण करना ।
८. अश्रुपात तथा क्रोध करना जूआ खेलना।
९. झुठबोलना, पक्वात्र की सुगंध लेना। दूसरे के घर फलाहर या पारण करन।
१०. तेल- उबटन लगाना। बिना धुला वस्त्र पहना। असत्य भाषण करना।
११. कॉंस्य पात्र में भोजन करना। दो बार फलाहार लेना। मधु खाना।
१२. कायिक – वाचिक- मानसिक दस पापों को करना। ( दूसरों क वस्तु लेना, हिंसाकरना, परस्त्रीगमन तनकायिक, परूषवाणी, असत्यभाषण, चुगली, प्रलापकरना चारवाचिक,परधनपरनजर, दूसरेका अनिष्ट, मिथ्याकार्योंको करना येदस पाप होते है ।)
व्रत में ग्राहा् भोज्यपदार्थ ( फलाहार, हविष्य) – १. सांवा २. नीवार (तिन्नी) ३. कुट्टू ४. सिंघाड़ा ५.तिल ६.कन्द ७. गोदुग्ध ८. गोदह ९. गोघृत १०. आलू ११. आम्रफल १२.केला १३. नारीयल १४. हर्रे १५. पिप्पली १६. जीरा १७. सोंठ १८. ऑंवला १९. बड़हल २०. भूमि के भीतर उत्पन्न होने वाला कन्द – मूल आदि सफेद ( लाल नहीं ) २१. ईख का रस। इन पदार्थो को तेल में तलना वर्जित है। कोई – कोई गाय का पट्ठा और भैंस का घी भी हविष्य में मानते है, पर यह सर्वसम्मत नहीं है। धर्मसिन्धुग्रन्थ में तिल, गेहॅूं और मूंग को हविष्यान्न ( फलाहार ) में बतलाया गया है पर प्रायश: व्रती इनको अन्न मानकर नहीं ग्रहण करते ।
जल, मूल ( पृथ्वी के भीतर उत्पन्न भोज्य पदार्थ ), फल, दूध, हविष्य, ब्राहा्ण की कामना, गुरू का वचन और औषध इन आठ पदार्थो से व्रत का भंग नही होता है। गुरू और ब्राहा्ण की आज्ञा मानकर व्रत में किया हुआ आचरण व्रत भंग कारक नहीं होता है। इसमें दोष आज्ञा देने वाले गुरू और ब्राहा्ण के ऊपर पड़ता है। अत: गुरू और ब्राहा्ण को अपने मुख से हमेशा धर्मयुक्त तथा सद्आचरण से युक्त आदेश को ही अपने शिष्य और यजमान से कहना चाहिए- अष्टैतान्यव्रतघ्नानि आपो मूलं फलं पय:।
हविर्ब्राहा्णकाम्या च गुरोर्वचनमौषधम् ।।
दो विरूद्ध व्रत – यदि एक ही दिन किसी व्रत का पारणा हो और दूसरे व्रत का आरम्भ हो तो ऐसे में व्रत का पारणा करना अनिवार्य होता है – तत्रभोजनमेव कार्यम् पारणा विधि से प्राप्त है। तुलसीदल खाने से पारणा का फल मिलता है और व्रतभंग भी नहीं होता है।
रात्रिभोजन क अनिवार्यता – वारव्रत एवं चतुर्थीव्रत आदि में रात्रि भोजन करना ही प्रशस्त है- एवं रविवारादौ संकष्टचतुर्थ्यादिव्रतेरात्रिभोजनमेवकार्यम् । धर्मसिन्धु, प्रथमपरिच्छेद, व्रत सन्निपात । पारणा के दिन यदि एकादशी उपस्थित हो तो जल से पारणा करके उपवास करना चाहिए। जहॉ भी रूकावट आये वहॉ जल से पारणा करनी चाहिए।
मुहूर्त- दो घटी (४८ मिनट ) का एक मुहूर्त कहलाता है- मुहूर्तोघटिकाद्वयम्
। ब्राहा्मुहूर्त – रात्रि का अन्तिम याम ( प्रहर = ३ घण्टा ) ब्राहा्मुहूर्त कहलाता है – रात्रेस्तुपश्चिमोयाम: मुहूहर्तोब्राहा्संज्ञक:। यह सूर्योदय का पूर्ववर्तीकाल होता है।